रविवार, 1 मई 2011

क्या यही प्रीत है

जो मद्धिम हवा के झोंके सी

जो झरने के मीठे पानी सी

जो प्रीत के आंसू सी खारी

जो श्रम-संचित बूँद पसीने की !

क्या यही प्रीत है ??

जो खुशबू का एहसास लिए

जो चाहत की मीठी प्यास लिए

मिलने का इन्तजार लिए

नज़दीकी का एहसास लिए

क्या यही प्रीत है ??

जो वियोग डर से कम्पित

जो तन्हाई भय से शंकित

वो रुनझुन से करती छा जाती

अकस्मात ही आ जाती

क्या यही प्रीत है ??

वो बने काव्य, और भा जाए

तो प्यार न कैसे हो जाए

डर है ये टूट न जाए लड़ी

जिससे मेरी हर याद जुडी

कविता है बस्ती है मन में

अटखेली करती मन आँगन में

क्या यही प्रीत है ??


तेरी याद में

याद तेरी बस आती है

दिल की धडकन बढ़ जाती है

चित चैन कहीं खो जाता है

जब तू ख्याल में आता है |

स्पर्श सभी जग जाते हैं

आँखें भी नम हो जाती हैं

आँखों से आंसूं झरते हैं

ज्यों मन का ताप पिघलता है

पल-छिन महीने बरस-बरस !

दिल मिलने को गया तरस !

पलक पांवड़े बिछा राह में

सदियों से मन की एक पुलक !

चाँदनी रात की चादर पर

कदम कदम हम बढ़ते हैं

मंजर, सफ़ेद पन्नो पर ज्यों

कुछ हरफ –ब-हरफ उभरते हैं

कि, यकायक ही हर सु

कविता सी बिखरने लगती है

जिसे समेटे आँचल में हम

दिन रात मचलते फिरते हैं

यही धरोहर छुपा जगत से

सीने से लगाए फिरते हैं