शनिवार, 19 जून 2010

धरकन इक छोटी सी बिछड़ी दिल से कुछ ऐसे
उंगली जो थमी थी बरसो से छूट गई हो जैसे

नन्ही सी आन्सो की बूँद पलकों से टपकी कुछ ऐसे
दर्द का सह्लाब बह निकला हो जैसे

वक़्त के हाथों से लम्हा इक गिरा यूं
पछता रही हूँ आज भी इक यह हुआ कयूं
कतरा कतरा जिंदगी रोई कुछ ऐसे
तिल तिल कर जले दिए में लौ जैसे

सान्सून की लड़ी से सांस इक गिर गई कयूं
आखिर तुम मुझे छोड़ कर चल दिए कयूं

याद इक छुट गई पीछे कहीं सदियूं से परे
जब से रहने लगे हो तुम हम से कुछ परे परे

शनिवार, 12 जून 2010

मिली नही

मिली नही नजर कि बस जुबान बन गई
आवाज़ का खयाल ही तो कान बन गई

ओंठ कपकपा उठे पर दिल न कह सका
ये कैसी शर्म है कि जो गुलाल बन गई

शरारतों में, छुअन का ख्याल बस गया
एहसास छुप सका न, बेनक़ाब बन गई

बेबाक चले आये हो इस कदर जो सपन में
आंखे मेरी, ज़माने का हर ज़वाब बन गई

जाओ चले जाओ चुपके से पलक से
सहर होने को है, और ये बेहिज़ाब हो गई

बस गए हो दिल में, तो ताज़िन्दगी रहो
ये घर है अब तुम्हारा, मैं बेमकान हो गई