मंगलवार, 2 जून 2009

likhoon kuch

डुबो के कलम ल्फजून की
साही में अरमानो की
ले के मशवारे इरादे से
बिठा के ख्यालूँ को
आँचल के झूले में
रोज़ बातें करती हूँ
अन्गुलियूं से
लिखती हूँ पाती
पर लिख नहीं हूँ पाती
जब तक न मिल जाए
कोई एक साथी
जो देदे अपने कान
सुनने को मेरी तान
मेरे ख्वाबून की उदान
चले मेरे संग
पहचाने मेरे सब रंग
देखे हूँ जिसने मेरे ढंग
हो लूं में उस के संग

तो लिख पाती पाती
में उसी की ही हो जाती

budhiya hoon mein

नजरें कुछ धुंधलाई सी
चाल कुछ लड़ख्राई सी
जितना ऊंचा सुनती हूँ
उतना ही धीमा बोलती हूँ
दांत भी कुछ हे कुछ नहीं
कहती हूँ कुछ
सुनती हूँ कुछ और ही
आधे अधूरे शब्द
बिना चबाए ही निगल जाती हूँ
दिमाघ भी चल गया है शायद
चल भी नहीं पति हूँ न
हस्ती बहुत हूँ
बार बार दांत हाथ में आ जाते हैं
अरे में कोई जादू की पुरिया नहीं हूँ
बस कुछ ही बरस हुए
नन्ही सी गुडिया थी में
आफत की पुरिया थी में
हाँ खूब पहचाना आपने
एक नई नयी सी बुधिया हूँ में

garmi ki dhoop

देखि गर्मी की दोपहरी में
धुप भागती दखी
धुप से मुँह छुपाए
लिए लाल लाल गाल लाल हुई
गली गल भटकती
भागती
गिरती पटकती
देखी धुप
राहत पाने को कभी वरिक्शूं से खेलती आँख मिचोली
तो कभी जा बैठती दीवारून से सैट के
पाऊँ सिकोरती
आँचल सर पे ओर्ध्रती देखि
धुप
धुन्दती साए जो सुख पहुंचे
कभी पततूं को हिलाती
फंखा झुलाती
पल भर को ठंडी होने को
माथे से पसीना पोंछती देखी धुप
नदियूं से मिलती नालूँ में झांकती
सागर की लहरून से मिन्नतें करती
गर्मी की दोपहरी की धुप
जहां देखा झरना
गट गट पी जाती
हवा को भी मुँह बाहे खा जाती
गर्मी की दोपहरी की धुप
नहीं पाती राहत
कहाँ हो पाती ठंढी
गर्मी के दोपहरी की धुप
थक हार कर
माथा पीट लेती
जा बैठती
संध्या के सिरहाने
जरा सुख पाने
वोह गर्मी की दोपहरी की
धुप

garmi ki dhoop

देखि गर्मी की दोपहरी में
धुप भागती दखी
धुप से मुँह छुपाए
लिए लाल लाल गाल लाल हुई
गली गल भटकती
भागती
गिरती पटकती
देखी धुप
राहत पाने को कभी वरिक्शूं से खेलती आँख मिचोली
तो कभी जा बैठती दीवारून से सैट के
पाऊँ सिकोरती
आँचल सर पे ओर्ध्रती देखि
धुप
धुन्दती साए जो सुख पहुंचे
कभी पततूं को हिलाती
फंखा झुलाती
पल भर को ठंडी होने को
माथे से पसीना पोंछती देखी धुप
नदियूं से मिलती नालूँ में झांकती
सागर की लहरून से मिन्नतें करती
गर्मी की दोपहरी की धुप
जहां देखा झरना
गट गट पी जाती
हवा को भी मुँह बाहे खा जाती
गर्मी की दोपहरी की धुप
नहीं पाती राहत
कहाँ हो पाती ठंढी
गर्मी के दोपहरी की धुप
थक हार कर
माथा पीट लेती
जा बैठती
संध्या के सिरहाने
जरा सुख पाने
वोह गर्मी की दोपहरी की
धुप

raat bhar

चादर ओर्धे चाँदनी की
रात ..............
रात भर .......
मूंदे अखीयान करती इन्तजार
रात...........
रात भर
साजन का
नींद का ख्वाबून का
तारों से करती बात
रात....
रात भर ...
बदलती रही करवाते रातभर
रात...
जरा सी सरसराहट पर
हर आहात पर चौंक चौंक जाती
रात......
रात भर ....
न नींद आई न ख्वाब ऐ न तुम ही आए
रात भर
करवटें बदलती रही रात ...
रात भर न सोई
ख्यालूँ में खोई
प्यार में बेबस बेकरार
अब गई हार गई
रात......
चादर चांदनी की सरअकने लगी सर से
किरने सूरज क जो आ पडी साथ
मलती आँखे लेती अंग्धाई आधी अधूरी
रात....
उठ चली
छोड़ सिलवाते नींद की गोदी से
रात....
निकल चली वोह गई वोह गई
रात
उमीदे जगाए दिन भगा आया
मिलन की आस लाया
औब ख्वाब देखती हे खुली आन खून से
रात..
दिन भर
रात...