सोमवार, 15 जून 2009

जिन्दगी की परछाइयां

टूटे रोशनदान में
चिडियों के घोंसले
जिन में उन के बच्चे चहचहाते हैं...
उखड़ी खिड़कियाँ
जिन पर लकडी के टुकड़े ठुके हैं


किवाड़ भी आधा अधूरा सा
न कभी बंद हो न पूरा खुले
चाहे जो आए कुछ भी ले जाए
दीवालें कहीं हैं, कहीं नहीं हैं
उन की ओट में बच्चे लुकाछिपी खेला करते हैं

फर्श पर पैबंद लगे हैं
जीवन की दास्तानों के ...


प्रभु की कृपा की छत है सर पर
टपकती है तो घर भर जाता है
खुशियों से.. मुस्कानों से...


आँगन के गढ्ढे जब भर जाएं पानी से
तो हम भी उतार देते हैं कश्ती ख्यालों की ...


पानी जो आया भीतर कभी
न फिर लौट पाया कभी
रह गया यहीं सदा के लिए ...


बना लिया इस मिटटी के घरोंदे को घर अपना
कर लिया गुजारा ...

सूखे ख्यालों की रोटी और प्यार के रस से
भर लिया पेट अपना

हवा की सननन सनन
बरसात की रिम झिम करती लोरी ने
चांदनी के बिस्तर ने
जी भर के नींदें दी ...

इसे कोई उजड़ा मजार न समझे
यह बस्ती है मेरे बसते दिल के शहर की
जिस में बसते हैं सब दुनिया
के प्यार करने वाले दिल

टूटे रोशनदान में
चिडियों के घोंसले की तरह
जिन्दगी की परछाइयां ...

3 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

प्यार करने वाले दिल
hi 4 diwaron ko pyar ka gharouda banate hai...

अजित वडनेरकर ने कहा…

बढ़िया कविता है...

RDS ने कहा…

प्रेम पगे शब्द - जो जिन्दगी को कविता की तरह मनोहर और झरने की तरह प्रवाहमान बना रहे हैं ! अमृता ! यही नाम है न (कवियित्री का) ! शब्दों से अमृत टपकता है मधुर सरस और सुहावन ! जय हो !