कलाई पे बंदी
याद दिलाती अपनी हर वक़्त
वक़्त याद दिलाती धरी
घरियाँ पहने तोरें बनाएं
ख़रीदे बेचे घरियाँ सब
ले ले कभी दे दे तोफे में
घरियाँ सब
दिन रात गिनते हम घरियाँ सब
पर इक ने मिलती
जिसे कह पते अपनी
जो हो के रह जाती अपनेइ
थम जाती साथ निभाती
कभी न मिल पति घरी इक
कहते सब मिल बीइठो घरी दो घरी हमारे संग
पर कहाँ किसी की हो कर रहती घरियाँ
जो बाँध बाँध
रखते कलाईयूं पर हम सब
1 टिप्पणी:
घड़ी वह नहीं जो दीवार पर पडी है
असल घड़ी तो वह
जो प्यार में बीते
इंतज़ार में बीते
इज़हार में बीते
समय वह नहीं जो सुईयों के सहारे चलता हो
बल्कि वह जो
बेकरार कर दे
करार ला दे
बहार ला दे
ये घड़ी घड़ी की बात है
वो घड़ी और थी जब दो दिल मिले,
घड़ी वह भी थी जब दो दिल बिछुड़ गए
बिरहा के घड़ी भी तो एक घड़ी ही थी
भारी और बोझिल,
मिलन की चाह में,
मिलन की राह खोजती घड़ी
कितनी मुश्किल से गुज़री क्या बताए कोई...
अब कौन सी घड़ी है
जब सनम तेरा साथ है ...
समय हवा के घोडों पर सवार
सरपट भागता है पंख लगाए...
बोझिल यादें जुदा हुईं
बोझिल घडियां बिदा हुईं...
अमृत बेला आ पहुँची है
हल्के पंख लगाए
आनंद कहा न जाए...
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