सोमवार, 6 जुलाई 2009

ek dua

क्षितिज के उस पार
कहाँ क्षमता है इन ज्योति हीन नयनों में
जो पा सकें दरस तेरा

है जो तू हर सू बसा
कहाँ हैं वोह सपर्श इन जड़ अंगों में
की छूं कर महसूस कर सकें अपने प्रभु को

ऐसी श्रवन शक्ति नहीं की तेरे उपदेश सुन
समझ उन पर करूं अमल तो हो पाऊँ तेरे करीब मेरे मालिक

दिल के आँगन में है भीड़ भाड़ इतनी
की हर समय मजमा लगा है
झूठ ईर्षा द्वेष क्रोध का
तो कहाँ बिठाऊँ तुझे मेरे प्रियतम

बर्तन भी मेरी रूह का है कसैला
जीवन भर की कड़वाहट ढोंग और नफरतों से
कैसे पड़े तेरी पाक कृपा की नज़र मुझ नाचीज़ पर मेरे हरी

लो हाथ उठा करती हूँ दुआ
झोली फैला मिन्नतें में करूं तुझ से
आँखों में हैं आंसू शारदा के बैराग के
करो कृपा प्रभू मेरे

दे दो वो नजर जो दीदार करूं तेरा
वोह श्रवन जो सुन के तुझे अपनाए
हो जाए यह दिल वीराना जगत से
माँज डालो मेरे रूह के बर्तन को
की अंजुली भर लूं तेरी कृपा से

करदो अनाथ की पा सकूं नाथों के नाथ को
फिर मिल हरि से मिल अलोप अलोक हो हरी ही हो रहूँ

बस यही है दुआ मेरे हरि

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