जब तक नज़रें थी अपने पर , ख़ुद को ही देखती थी मैं ,
जब से मिली तुम से नज़र, ख़ुद को देखना भूल गई ,
जब तक मिली ना थी तुमसे, खुद को ही जानती थी
जब से मिलना हुआ तुम से, खुद से मिलना भूल गई ,
जब तक रहती थी अपने घर, ख़ुद के साथ ही रहती थी ,
जब से आ गई घर तुम्हारे, खुद के घर का पता भूल गई
जब तक अपनी दुनिया में थी , लौट आती थी अपने ही पास
जब से खोई तुम्हारी दुनिया में, वहां से लौट के आना भूल गई
3 टिप्पणियां:
सुंदर पंक्तियां हैं हरमिंदर जी ...शुभकामनाएं ..
मन के ताने बाने की ये कैसी गत, कैसी उलझन?
कब मन में है प्रीत उमडती कब मन से होती अनबन ? प्रीत नही ये लहरें हैं जो मन का मंथन कर देती हैं । भूल न पाये प्रीतम को बस अपनी सुधबुध हर लेती हैं । ( आर डी सक्सेना )
aji shukriya
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