बुधवार, 2 नवंबर 2011

कविता ना लिखी ही जाती है ना कही
बस होने लगती है खुद ब खुद
जब जब
खुदा के पाक हाथ छू जाते हैं
किसी जबीं को
थाम लेते हैं जेहन की अंगुली
कर के रूह के पंखून पर सवार
ले जाए ब्रह्माण्ड के उस पार
खुद ही खुदा
तो उस के नक़्शे प् ही हो रहते हैं
किसी कविता के हर्फ़
और रह रह कर उभर आते हैं जेहन में
उत्तर आते हैं किसी की जुबानी
कविता बन बन

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