क्षितिज के उस पार
कहाँ क्षमता है इन ज्योति हीन नैय्नूं में
जो पा सकें दरस तेरा
है जो तो हर सु बसा
कहाँ हैं वोह सपर्श इन जड़ अंगून में
की छूं कर महसूस कर सकें अपने प्रभु को
ऐसी श्रवन शक्ति नहीं की तेरे उपदेश सुन
समझ उन पर करून अमल तो हो पाऊँ तेरे करीब मेरे मालिक
दिल के आँगन में है भीड़ भाड़ इतनी
की हर समय मजमा लगा है
झूठ ईर्षा द्वेष क्रोध का
तो कहाँ बिठाऊँ तुझे मेरे प्रियतम
बर्तन भी मेरी रूह का है कसैला
जीवान भर की कड़वाहट दोंग और नाफ्रातून से
कैसे पड़े तेरी पाक किरपा की नज़र मुझ ना चीज़ पर मेरे हरी
लो हाथ उठा करती हूँ दुआ
झोली फैला मिन्तें में करून तुझ से
आन्खून में हैं आंसू शारदा के बैराग के
करो कृपा परभू मेरे
देदो वोह नजर जो दीदार करून तेरा
वोह श्रवन जो सुन के तुझे उपनाएं
हो जाए यह दिल वीराना जगत से
मांझ डालो मेरे रूह के बर्तन को
की अंजुली भर लूं तेरी कृपा से
करदो अनाथ की पा सकूं नाथों के नाथ को
फिर मिल हरी से हरी से मिल अलोप अलोक हो हरी ही हो रहूँ
बस यही है दुआ मेरे हरी
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