यादें इकठा कर
बुनती हूँ सपनो की चादर
रोज़ रात
ओढ़ के सो जाती हूँ
सुभह होते ही दिन चडते ही
आँखें खुलते ही
सुब उधेड़ देती हूँ चादर
दिन भर रहती हूँ खोई खोई
तेरे ख्यालूँ में रोई रोई
तुझ से करती हूँ बातें
हमेशां तुझे ही पास पाती हूँ
तुझ से मिलने की आस
तुहे देखने की प्यास
दिन भर दौडाती है
जिन्दा रख पाती है
तेरी याद तेरी प्यास
तेरी आस की फिर बुनती हूँ
चादर इक
सपनो की और सपनोमें खो जाती हूँ
2 टिप्पणियां:
प्यास का समंदर है और दरिया का इशारा है
कोई ख्वाब सुनहरा है और चादर का सहारा है
भीनी भीनी चादर है , भीगा भीगा सा मन है
जो एक नशीला धागा है प्रियतम ने संवारा है
bahut achhe kavita se sundar to kavita ke roop mein us ki tippani haiji
mubarak
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