मंगलवार, 9 जून 2009

yaad

यादें इकठा कर
बुनती हूँ सपनो की चादर
रोज़ रात
ओढ़ के सो जाती हूँ

सुभह होते ही दिन चडते ही
आँखें खुलते ही
सुब उधेड़ देती हूँ चादर
दिन भर रहती हूँ खोई खोई
तेरे ख्यालूँ में रोई रोई
तुझ से करती हूँ बातें
हमेशां तुझे ही पास पाती हूँ

तुझ से मिलने की आस
तुहे देखने की प्यास
दिन भर दौडाती है
जिन्दा रख पाती है
तेरी याद तेरी प्यास
तेरी आस की फिर बुनती हूँ
चादर इक
सपनो की और सपनोमें खो जाती हूँ

2 टिप्‍पणियां:

RDS ने कहा…

प्यास का समंदर है और दरिया का इशारा है
कोई ख्वाब सुनहरा है और चादर का सहारा है

भीनी भीनी चादर है , भीगा भीगा सा मन है
जो एक नशीला धागा है प्रियतम ने संवारा है

harminder kaur bublie ने कहा…

bahut achhe kavita se sundar to kavita ke roop mein us ki tippani haiji
mubarak