शनिवार, 4 जुलाई 2009

parchai

खामोशियाँ छाई रही यूंही बरसून
मदहोश से परे रहे जज्बात मैखाने के किसी कोने में
ढूँढती रहीं मेरी चुपियाँ किसी को
दिल मेरा भटका गली गली
भीरुं में हर चेहरा लगा तेरा ही चेहरा
आवारा सी हो घोमती रही सोच मेरी
मेले में में रहइ अकेली
एक अनगुली जो थामी थी बचपन ने कभी
आज बूदी हुई उंगलियाँ
खोजती फिर रही हैं उन्ही स्पर्शून को
शून्य सा हो वक़्त भी चलता रहा थम थम कर
थम गई जिंदगी सदियूं पहलेसे
भागते फिरे जुगनुओं की पीछे रात भर
आवारा ख्वाबउन को बाँध बाढ़ रखते रहे
जिंदगी तंगी रहगी रही दर्खून पर कटी पतंग सी
आज भी है
इन्तजार इन बुझी बुझी आन्खून में