चाद निकल आया हे अँधेरी रात में
जुगनू टिमटिमा रहे हैं आँगन में
खुशबूएं फेल गईं हैं फिजाओं में
फूल भी खिलखिला के हस रहे हैं बाग़ में
अन्ग्र्दाई सी आ रही हे बादलूँ में
मस्ती सी दीक परती है हवाओं में
खुमारी सी छा गयी हे जिंदगी में
उमंगें जाग गयी हैं मनमें
गुदगुदी सी हो रही है रूह में
घंटियाँ बज उठी तन में में
कम्पन सी जग गयी हे ओंठूं में
मुस्कुराहट से फेल गई हे आन्खून में
देखो हरकत सी हो रही है रुके हुए दिल में
चुपी सी लग्ग गयी है जुबान में
ख़ुशी के आनसु आ के रुके हैं मेरी आन्खून में
आज फिर से पुकारा हे मुझे किसी ने प्यार में
बुधवार, 27 मई 2009
chaand
में चाँद की तरेह हूँ
भीख की रौशनी पे इतराती हूँ
कया दे पाऊँ गी तुम्हे में खुद मांगके खाती हूँ
खाली बर्तन को नादेखो ललचाती नजरूं से
में खुद को देख देख लज्जाती हूँ
तरसी हो जो खुद ता उम्र प्यार को
में ऐसी ही इक प्यासी नदी हूँ
न बेईठो मेरे इतने करीब किमें फिर बहुत सताती हूँ
जब मिलती हूँ तो सुख देती हूँ शायद
पर जाती हूँ तो बहुत याद आती हूँ
मत भूलो की में मया हूँ
मिलूँ तो भी भिच्रून तो भी बहुत बहुत सताती हूँ
भीख की रौशनी पे इतराती हूँ
कया दे पाऊँ गी तुम्हे में खुद मांगके खाती हूँ
खाली बर्तन को नादेखो ललचाती नजरूं से
में खुद को देख देख लज्जाती हूँ
तरसी हो जो खुद ता उम्र प्यार को
में ऐसी ही इक प्यासी नदी हूँ
न बेईठो मेरे इतने करीब किमें फिर बहुत सताती हूँ
जब मिलती हूँ तो सुख देती हूँ शायद
पर जाती हूँ तो बहुत याद आती हूँ
मत भूलो की में मया हूँ
मिलूँ तो भी भिच्रून तो भी बहुत बहुत सताती हूँ
amrita
में नहीं न हूँ वोह
जो आप सम्झेई हैं मुझे
मै गुम नाम बेनाम
शायद हूँ मै बदनाम
सुबह की धुंद जो छट जेइगी
शाम का धुंआ जो हो रहे गा धुंआ
छाया हूँ या की हूँ माया
छलावा हूँ या की हूँ सपना कोइ द्रादनाक
संध्या हूँ की सन्नाटा
शमशान हूँ या की वीराना कोई
कोई भूल नहीं
शूल चुबा सीने में हूँ मैं
इक टीस
इक चीख
एक हूक
उठती हेई जो सीने में रेह्रेह कर
दर्द हूँ दिल का
या हूँ रोगे कोई
एक सिसकी
इस सुबकी
इक आह हूँ दुब्बी दुब्बी
एक कतरा आन्सो
जो आँख से टपका और भिखर गया
नहीं में वोह नहीं जो समझे थे तुम मुझे
अमृता...............................................तो बस यूंही
क्यूं की तुम कहते हो
जो आप सम्झेई हैं मुझे
मै गुम नाम बेनाम
शायद हूँ मै बदनाम
सुबह की धुंद जो छट जेइगी
शाम का धुंआ जो हो रहे गा धुंआ
छाया हूँ या की हूँ माया
छलावा हूँ या की हूँ सपना कोइ द्रादनाक
संध्या हूँ की सन्नाटा
शमशान हूँ या की वीराना कोई
कोई भूल नहीं
शूल चुबा सीने में हूँ मैं
इक टीस
इक चीख
एक हूक
उठती हेई जो सीने में रेह्रेह कर
दर्द हूँ दिल का
या हूँ रोगे कोई
एक सिसकी
इस सुबकी
इक आह हूँ दुब्बी दुब्बी
एक कतरा आन्सो
जो आँख से टपका और भिखर गया
नहीं में वोह नहीं जो समझे थे तुम मुझे
अमृता...............................................तो बस यूंही
क्यूं की तुम कहते हो
prem kahani
एक धरकन छोटी सी
बैठी घुटनों पर ठुदी तिकाएय
घर की देहलीझ पर
कुछ इस तरह टिकटिकी लगाए
राह पर
मानो हो किसी राही के इन्तजार में ..........
बैठी रही बरसून
बरसून बेठी रही
फिर अचानक एक दिन
दिल के द्वार पर दस्तक दी
एक धड़कते दिल ने
न जाने काया आया मन में उठ के चल दी
संग होली उस दिल के
न कुछ कहा
न ही पुछा
बस यूंही संग संग धरकने लगे दोनों
समा गए इक दूजे मेंईसे
न जुदा होंगे जैसे
फूल से खुशबू
हवा से रवानी
लहर से पानी
चाँद से चाँदनी
सूरज से रौशनी
एक ने कही दुसरे ने मानी
यूंही चलती गयी जिंदगानी
ना कही ना जानी
और सभी ने मानी............
बस यही है मेरी प्रेम कहानी
बैठी घुटनों पर ठुदी तिकाएय
घर की देहलीझ पर
कुछ इस तरह टिकटिकी लगाए
राह पर
मानो हो किसी राही के इन्तजार में ..........
बैठी रही बरसून
बरसून बेठी रही
फिर अचानक एक दिन
दिल के द्वार पर दस्तक दी
एक धड़कते दिल ने
न जाने काया आया मन में उठ के चल दी
संग होली उस दिल के
न कुछ कहा
न ही पुछा
बस यूंही संग संग धरकने लगे दोनों
समा गए इक दूजे मेंईसे
न जुदा होंगे जैसे
फूल से खुशबू
हवा से रवानी
लहर से पानी
चाँद से चाँदनी
सूरज से रौशनी
एक ने कही दुसरे ने मानी
यूंही चलती गयी जिंदगानी
ना कही ना जानी
और सभी ने मानी............
बस यही है मेरी प्रेम कहानी
किसी ने कहा ...
किसी ने कहा ...अमृत नाम में कुछ तो है
जो जीवन दायिनी है ...
तभी तो 'अमृता' का ख्याल ही भर देता है
रग रग में ऊर्जा, उमंग और उत्साह !
अमृत का अस्तित्व कहीं है
तो वहीं कहीं है
जहां है अमृतघट का सिन्धु, अमृता - अमृत परिसर ...
मन से छुअन सिहरन देती है
तन की छुअन सा अहसास भी ..
अमृत बरसा जाती है
च्यवनप्राश बन जाती है
आती है चिर युवा होने का अहसास जगाने ..
कहाँ बसा है वह अमृत घट ,
कहीं तो नहीं सिवा ह्रदय के
जगाता है जीवन जीने की चाह
अमरता - नश्वरता के बीच का सेतु सा,
दौडा देता है खोज में उस कस्तूरी मृग की
जो है सदा से मेरे भीतर
सुगन्धित करता रहता है
चिरंतन निरंतर .. सदा सर्वदा... अमृता की तरह...
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