सोमवार, 5 अक्टूबर 2009

मीरा या माया ! दोनो सच !

एक मुखौटा औरों जैसा ...
छिपा है जिसमे चेहरा मेरा ...
आडंबर हैं आधा जीवन
और पाखण्डी मेरा मधुवन
मेरी श्रधा प्यार सभी कुछ
एक छलावा सा यह यौवन ...

ढोंग करूं मैं पूरा पूरा
सच को उघाडूं सदा अधूरा
माहिर हूँ मैं माया रच दूं
संतों का अस्तित्व मिटादूं

पर मेरा सच मेरे अंतर में
मुझ से मिलना हो जो घर में
चले आओ मन के इस तल में
ताला है इस किवाड- द्वार पर
विरला ही चल सके राह पर

यह मीरा का आमोदित घर है
दस्तक है उस पार ब्रह्म की
अन्दर है मंदिर की घंटी
अन्दर गिरजाघर की प्रेयर
और अजान सी टेर यही पर
गुरद्वारे की बानी गूंजे
पलक भीग गयी सुनते सुनते

इस दहलीज़ पर एक अभागन
खुद बहुतेरे रह जाती हूँ
ठिठके से पग रुक जाते हैं
दस्तक देने से पहले ही
लौट लौट फिर फिर आती है ..

मैं मीरा, मैं माया आधी
जगत मुखौटे में उलझी , बांधी
पूरा सच क्या है, सुलझा दो
प्रेम गीत गा मुझे सुला दो !