कौन हूँ मैं ?
धरा हूँ , अस्तित्वहीन ..
या कि, भाव हूँ निराधार ..
विचार हूँ कोई अलिखित सा शायद ...
जिसे जेहन की स्लेट पर न उतारा गया हो अभी ..
माया हूँ या माया का अंश !
भूली भटकी हवा हूँ
बिन राह के मुसाफिर की मानिन्द
या फिर खंडहर हूँ किसी कालातीत ऐश्वर्य का ..
जहां दिखा खुला आसमान सा मन
बस उसी की हो रहती हूँ ...
जहां खीच दे कोई लकीर बह निकलती हूँ उसी और
रस धार बन कर नदी की मानिन्द ..
बरस जाती हूँ जहां कहीं होती है चाह रस की ...
न वजूद है कोई न अस्तित्व न हीं आकार मेरा
माया हूँ या माया का अंश !
ऐ मेरे मसीहा
दिखा दो राह बन जाओ ज्योति
मेरे मन की नैनों की
ले चलो उस पार
जिसे किनारा कहते हैं सब
जहां भर ले कोई अंजुली में मेरे प्रेम को
हो जाऊं धूल से फूल
अर्पण हो रहूँ चरणों में तेरे
तो मुक्ति पाऊँ होने से माया के
इस रूप से ...