शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2009

काफी है

जिन्दा रहने के लिए काफी है

इक मुठी आसमान
ताजा हवा के झोंके
झरने का शीतल निर्मल जल
जिन्दा रहने के लिए काफी है

सर पर इक छापरी छोटी सी
इक चूल्हा इक हंडिया

इक थाली इक कटोरी इक गिलास
एक दो मुठ्ठी अनाज
पेट भरने के लिए काफी है


इक चटाई इक बिछोना
इक ओढनी इक तकिया
इक लोरी कुछ मीठे सपने
नींद लेने को काफी है

इस के अलावा जो है सब
इक भेड चाल है बस दिखावा
इक झूठा सच या डरावना ख्वाब
नही जिस के लिए कोई माफ़ी है

इंसान को इंसान होने के लिए
इक दिल दरिया , दया और ज़मीर
इक जेहन सूझवान
इक रूह प्यारी सी काफी है

इस देह के मनमन्दिर में
इक सिंहासन हो हरि का
ज्यों सोने चांदी का रत्न जडाऊ

इक मुकट इक हीरे जरी खडाऊं
जिस की करें पूजा और ध्यान
इबादत में झुका सर
समर्पित जीवन के लिए काफी है

2 टिप्‍पणियां:

रवि रतलामी ने कहा…

मगर, समस्या तब शुरू होती है जब आदमी जिंदा रहने के लिए नहीं, बल्कि मरने-मारने के लिए जीने लगता है...

harminder kaur bublie ने कहा…

jo marne maarne ke liey hi jinda rahte hein unhein to aadmi hi nahi kaha ja sakta
woh to shayad jangal mein se bhage hue woh jeev hein jo wahan se apni jaan bacha ke sehroon mein mein khud ka jagal raj chalana chahte hein