बुधवार, 4 नवंबर 2009

जब तक

जब तक नज़रें थी अपने पर , ख़ुद को ही देखती थी मैं ,
जब से मिली तुम से नज़र, ख़ुद को देखना भूल गई ,

जब तक मिली ना थी तुमसे, खुद को ही जानती थी
जब से मिलना हुआ तुम से, खुद से मिलना भूल गई ,

जब तक रहती थी अपने घर, ख़ुद के साथ ही रहती थी ,
जब से आ गई घर तुम्हारे, खुद के घर का पता भूल गई

जब तक अपनी दुनिया में थी , लौट आती थी अपने ही पास
जब से खोई तुम्हारी दुनिया में, वहां से लौट के आना भूल गई

3 टिप्‍पणियां:

अजय कुमार झा ने कहा…

सुंदर पंक्तियां हैं हरमिंदर जी ...शुभकामनाएं ..

RDS ने कहा…

मन के ताने बाने की ये कैसी गत, कैसी उलझन?
कब मन में है प्रीत उमडती कब मन से होती अनबन ? प्रीत नही ये लहरें हैं जो मन का मंथन कर देती हैं । भूल न पाये प्रीतम को बस अपनी सुधबुध हर लेती हैं । ( आर डी सक्सेना )

harminder kaur bublie ने कहा…

aji shukriya