सरक के किनारे खरा में
एक बहुत पुराना एकला ठूंठ हूँ में
रोज़ इसी इन्तजार में हूँ
की पल भर को कोई आएय और आके मेरा हाल बताएं
में भी कुछ पाऊँ कुछ खो दो उस के मिलने में
कभी बुझेई मेरी भी प्यास
हाँ आतें थे
कभी कभार
मेरी छाया का सुख भोगने पल दो पल को
मुसाफिर देते थे चल अपनी अपनी राह
में वही खरा
एकला फिर तकता हूँ राह किसी दूजे की
मीठी ठन्डी छाया
मधुर खुसबू मेरे पतूं
फूलों की
मीठा स्वाद मेरे फलूं का
सुब चखते थे
पर मेरा कोई हो जाए सदा के लिएय ऐसा कभी न होपाया
इस मतलब के संसार में सुब मिलते हैं कुछ ले जाने को
बिचर जातें हैं तरपाने को
करके वादा फिर मिलने का
कभी न लो़त कर आतेइहें
कुछ ऐसा ही है
दस्तूर यहाँ का
ले ले ते हेई भूल जातें हैं देना
तभी तो हूँ में आज भी अकेला
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