बुधवार, 3 जून 2009

antim ghari

टिक टिक टिक करती
दीवाल पे तंगी
कहती मन को टिक टिक
टिकने को कहती
पर न टिका पाती वक़्त
दो हाथ चलते
लगातार चलती बिन पेरून के
चलता वक़्त दिखाती
खुद देखो हे टिकी हुई
दीवाल पर घरी
बुलाती हर दम संन्नाते में गूंजती
सोते को जगाती
फिर खुद ही सुलाती वाकर पर
दीवाल पे तंगी घरी
सुब को भगाती काम पौन्चाती
फिर घर भी ले आती वक़्त पे
खुदही दीवाल पे तंगी घरी
जल्दी मचाती
परेशान करती
टिकी हुई भी कहती
चल चल जल्दी चल
खुद न कभी जल्दी करती
दीवाल पे तंगी घरी
यूं हो जीवन भर चलती
कभी न आक्ती
कभी न थकती
चलती चलती
दीवाल पे तंगी घरी
बस यूं ही इक दिन
चलते चलते
सुब छूट जाते पीछे रह जाती तंगी दीवाल पे घरी
जब आ जाती किसी की अंतिम घरी

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