मंगलवार, 2 जून 2009

garmi ki dhoop

देखि गर्मी की दोपहरी में
धुप भागती दखी
धुप से मुँह छुपाए
लिए लाल लाल गाल लाल हुई
गली गल भटकती
भागती
गिरती पटकती
देखी धुप
राहत पाने को कभी वरिक्शूं से खेलती आँख मिचोली
तो कभी जा बैठती दीवारून से सैट के
पाऊँ सिकोरती
आँचल सर पे ओर्ध्रती देखि
धुप
धुन्दती साए जो सुख पहुंचे
कभी पततूं को हिलाती
फंखा झुलाती
पल भर को ठंडी होने को
माथे से पसीना पोंछती देखी धुप
नदियूं से मिलती नालूँ में झांकती
सागर की लहरून से मिन्नतें करती
गर्मी की दोपहरी की धुप
जहां देखा झरना
गट गट पी जाती
हवा को भी मुँह बाहे खा जाती
गर्मी की दोपहरी की धुप
नहीं पाती राहत
कहाँ हो पाती ठंढी
गर्मी के दोपहरी की धुप
थक हार कर
माथा पीट लेती
जा बैठती
संध्या के सिरहाने
जरा सुख पाने
वोह गर्मी की दोपहरी की
धुप

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