सांझ होते ही
 सूरज के ढलते ही
रात भागती  फिरती है
गली गली
 कूचा कूचा नापती
 कभी इस और तो कभी उस चोर
 नदी किनारे
सागर की लहरों के पीछे
 कभी चढ़ जाती पहाड़ पर
 कभी छिप जाती पैडों तले 
भागती  लुक छिप जाने कहाँ कहाँ
 यहाँ वहां कहाँ कहाँ
 इधर से उधर तक
 तो कभी उधर से इधर तक
सर पटकती रोती बिलखती
ना कोई साथी
 ना कोई सहारा
 कोई ना कहे आना दोबारा
 कितनी अकेली बेचारी  रात ..
 संग चले अंधियारा
कभी तारों  से कहती
कभी  चंदा से मिन्नतें करती
 पर यूंही दौड्ती  भागती  सी रात ..
 धीमे से खसकती जाती
आज की रात पलभर में
कल सुबह की बाहो में
यूं ही छिपती  जाती
खिसकती खिसकती आज की रात ...
 पल में होगी  कल की सुबह
 रात आज की  रह जाओ मेरे पास
आज की रात मेरे हो जाओ...
 
 
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