शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

बेच दे मन

पसरे सुबह बन कर
चले हवा हो कर
बहे तो गंगा सागर हो कर

चमके तो चांदनी सा
फैले हर सू खुसबू सा

दुल्रारे गोदी सा भूम हो
भरे पेट बन्स्पत हो
आलिंगन में ले ले कुदरत हो

सर पर छत सा गगन वोह
रोशन हो धुप सा वोह

तो कहाँ

छिप छिपा सके है एह इंसान तू
उस की नजर की ज्योत है चारूं और

आ शरण पा आर्शीवाद
कर दे तेरे सरे गुनाह मुआफ
मिल के इक से इक हो रह

झुका दे सर बेच दे मन परभू के पास

कोई टिप्पणी नहीं: