शनिवार, 12 सितंबर 2009

... तो कोई बात बने

... तो कोई बात बने


पन्नो पर बिखरे पड़े हैं शब्द मेरे यहाँ वहाँ
इन्हें समेट पाऊँ तो कोई बात बने

स्याही सी पहेली है हर सूं जैसे रात का अँधेरा
सहर हो जाने दो तो कोई बात बने

जुल्फों से उलझे उलझे से हैं जज्बात मेरे
इन्हें संवार लूं तो कोई बात बने

आवारा हवा से हुए जाते हैं ख्यालात
उन्हें लगाम दू जरा तो कोई बात बने

ख्वाब सो गये हैं अब गहरी एक नींद में
उन्हें जगा पाऊँ तो कोई बात बने

एहसास सभी उसके बिखरे पड़े हैं बून्दों से
सांसों की माला में उन्हे पिरो लूं तो कोई बात बने

मेरे दिल में छिपा बैठा है बस के कोई चाँद सा
उसे चान्दनी का बना पाऊँ तो कोई बात बने

आ खुद ही मुझ को ढूंढो मुझे सम्भालो
मैं घर को लौट पाऊँ तो कोई बात बने

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