रविवार, 8 अप्रैल 2012

वोह कहींदिखई देता नहीं

कभी कभी ऐसा लगता है
साथ अपना छूट गया है कहीं पीछे

हाथ जो खुद का थाम रखा था खुद ने
आज कल पकद में आता नहीं

देख कर आईने में अक्स अपने
पहले देखा है कहीं
ऐसा लगता नहीं


अपने ही स्पर्शून को महसूस कर पाते नहीं
खुद से बातें करने की आदत सी छुट गई है पीछे कहीं

इतना शोर है तन्हाइऊन का
फिर भी
जो तुम कहा करते थे
आज भी स्पष्ट सुनाई देता है

खुली हो या हूँ बंद यह आँखें
इन्मेंजो इक अक्स दिखा करता था
वोह कहींदिखई देता नहीं

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