बुधवार, 27 मई 2009

chaand

में चाँद की तरेह हूँ
भीख की रौशनी पे इतराती हूँ
कया दे पाऊँ गी तुम्हे में खुद मांगके खाती हूँ
खाली बर्तन को नादेखो ललचाती नजरूं से
में खुद को देख देख लज्जाती हूँ
तरसी हो जो खुद ता उम्र प्यार को
में ऐसी ही इक प्यासी नदी हूँ
न बेईठो मेरे इतने करीब किमें फिर बहुत सताती हूँ
जब मिलती हूँ तो सुख देती हूँ शायद
पर जाती हूँ तो बहुत याद आती हूँ
मत भूलो की में मया हूँ
मिलूँ तो भी भिच्रून तो भी बहुत बहुत सताती हूँ

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