मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

मुठियाँ


मुठियाँ

कस के बंद कर लेने से
ना थाम सकते हैं हम
समय को ना यादूं को
नहीं ही दिन की धुप को
अपने साए
चांदनी की खुशबू
बूँदें बरिशूं की
उठती गिरती लहरून की रवानगी को
चमकती बिजलियूँ को
सपनो को
ख्यालूँ को
सोच को

बस समंदर किनारे की बालो
सामान होते हैं यह सब
जितना स्टे हैं हम
मुथियूं को
उतना ही खोते हैं
चले छोड़ दें ढीली कर देखें यह
मुठियाँ
सारा जहाँ हमारा हो रहे गा
ना कुछ पाने कीछा ना खूने का डर

मुठियाँ खोल दो सभी
मुठियाँ

2 टिप्‍पणियां:

ashokjairath's diary ने कहा…

इजाज़त दें तुम हम कुछ इस तरह से कहें ( जानते है उतना अच्छा और सटीक नहीं होगा )

करीं थीं बंद कस के हमने अपनी मुठियाँ फिर भी
नहीं कुछ भी रहा बचकर , हमारे हाथ खाली हैं
फिसलता वक्त , दिन की धूप और न साये ही यादों के
वो खुशबू चांदनी की और लहरों की रवानी भी
कडकती बिजलियाँ , बूँदें , तुम्हारी सोच , वो सपने

सरकती रेत हो या अक्स हो बीते जहानो का
सभी तो रिस्ते रिस्ते बह गया है , खो गया देखो

नहीं करना था कुछ भी बंद , न ही कैद रखना था


अगर आजाद रखते उस को जिंदा पास में अपने
हमारा ही बना रहता हमारा वो जहाँ अपना

harminder kaur bublie ने कहा…

हाँ जी शायद हम भी वही कहना चाहते थे जो आप ने कहा
जब जब हम इस श्रृष्टि में किसी भी चीज़ को थामना बाँधने रोक ना चाहते हैं
वोह उतना ही बह बह निकलता है और हम उसे सदा के लिए ही खो देते हिएँ
चाहे ही वोह कोई धन पदार्थ हो या की रिश्ते नहीं तो भावनाएं विचार
सब सहज और सहजे से होता अरे अपने आप वक़्त की धरा में
बहता रहे तभी शायद वोह सही रुख और सही दिशा प् अपर सही दशा में
रह पता है चलो आज पर्ण करें की कभी कभी ना थामें गे ना बांधें गे और
खोल दे यह मुथियन बंद सभी की हो जाए यह सारा जहां ही हमारा ..........