मुठियाँ
मुठियाँ
कस के बंद कर लेने से
ना थाम सकते हैं हम
समय को ना यादूं को
नहीं ही दिन की धुप को
अपने साए
चांदनी की खुशबू
बूँदें बरिशूं की
उठती गिरती लहरून की रवानगी को
चमकती बिजलियूँ को
सपनो को
ख्यालूँ को
सोच को
बस समंदर किनारे की बालो
सामान होते हैं यह सब
जितना स्टे हैं हम
मुथियूं को
उतना ही खोते हैं
चले छोड़ दें ढीली कर देखें यह
मुठियाँ
सारा जहाँ हमारा हो रहे गा
ना कुछ पाने कीछा ना खूने का डर
मुठियाँ खोल दो सभी
मुठियाँ
2 टिप्पणियां:
इजाज़त दें तुम हम कुछ इस तरह से कहें ( जानते है उतना अच्छा और सटीक नहीं होगा )
करीं थीं बंद कस के हमने अपनी मुठियाँ फिर भी
नहीं कुछ भी रहा बचकर , हमारे हाथ खाली हैं
फिसलता वक्त , दिन की धूप और न साये ही यादों के
वो खुशबू चांदनी की और लहरों की रवानी भी
कडकती बिजलियाँ , बूँदें , तुम्हारी सोच , वो सपने
सरकती रेत हो या अक्स हो बीते जहानो का
सभी तो रिस्ते रिस्ते बह गया है , खो गया देखो
नहीं करना था कुछ भी बंद , न ही कैद रखना था
अगर आजाद रखते उस को जिंदा पास में अपने
हमारा ही बना रहता हमारा वो जहाँ अपना
हाँ जी शायद हम भी वही कहना चाहते थे जो आप ने कहा
जब जब हम इस श्रृष्टि में किसी भी चीज़ को थामना बाँधने रोक ना चाहते हैं
वोह उतना ही बह बह निकलता है और हम उसे सदा के लिए ही खो देते हिएँ
चाहे ही वोह कोई धन पदार्थ हो या की रिश्ते नहीं तो भावनाएं विचार
सब सहज और सहजे से होता अरे अपने आप वक़्त की धरा में
बहता रहे तभी शायद वोह सही रुख और सही दिशा प् अपर सही दशा में
रह पता है चलो आज पर्ण करें की कभी कभी ना थामें गे ना बांधें गे और
खोल दे यह मुथियन बंद सभी की हो जाए यह सारा जहां ही हमारा ..........
एक टिप्पणी भेजें