मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

जिंदगी

जिंदगी


बहुत खूब और अजीब होती है जिंदगी

रहती तो है करीब पर न होती है कभी

चलती है साथ साथ साए सी ज़िन्दगी ।
मगर बहुत दूर सी लगती है जिंदगी ॥

आज इस के पास है तो कल उस के पास ।

मेरा ही कुछ गुनाह कि मेरी हुई न जिंदगी

क्यूँ न कर सकी वफ़ा मुझ से ही मेरी जिंदगी
कर के वादा भूल कयों गई मुझे ये जिंदगी



देखना रूठ ना जाना कहीं मुझ से एह जिंदगी

यूं हिकभी जो मूह फेर लिया तुने
तो मौत के घर चली जाए गी यह डोली मेरी
एह जिंदगी

3 टिप्‍पणियां:

ashokjairath's diary ने कहा…

अमृता ने मौन तोडा
आप फिर लिखने कगी हैं
आपकी कलम पकड़ फिर से मुस्कान बिखराने का साहस नहीं है ... उँगलियों की पकड़ आपकी लेखनी तक नहीं पहुँच पाएगी ... उल्काओं और धूमकेतुओं से बड़े बड़े फासलों वाले हो गएँ हैं सब ... आप लिखती हैं तो लगता है जी रही हैं , जिंदा हैं ... कुछ उराना झलकता रहता है ... खुश रहें

ashokjairath's diary ने कहा…

शीर्षक हीन रचनाएँ प्रयोजनहीन और लावारिस लगती हैं ... क्या शीर्षक दे इन्हें पहचान नहीं देंगी ...

harminder kaur bublie ने कहा…

aji yeh jeene ka sahas bhi aap ne hi diya hai aur aapse hi seekha hai