शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

कौन हूँ में

कौन हूँ मैं ?
धरा हूँ , अस्तित्वहीन ..
या कि, भाव हूँ निराधार ..
विचार हूँ कोई अलिखित सा शायद ...
जिसे जेहन की स्लेट पर न उतारा गया हो अभी ..

माया हूँ या माया का अंश !
भूली भटकी हवा हूँ
बिन राह के मुसाफिर की मानिन्द
या फिर खंडहर हूँ किसी कालातीत ऐश्वर्य का ..

जहां दिखा खुला आसमान सा मन
बस उसी की हो रहती हूँ ...
जहां खीच दे कोई लकीर बह निकलती हूँ उसी और
रस धार बन कर नदी की मानिन्द ..

बरस जाती हूँ जहां कहीं होती है चाह रस की ...
न वजूद है कोई न अस्तित्व न हीं आकार मेरा
माया हूँ या माया का अंश !

ऐ मेरे मसीहा
दिखा दो राह बन जाओ ज्योति
मेरे मन की नैनों की
ले चलो उस पार
जिसे किनारा कहते हैं सब
जहां भर ले कोई अंजुली में मेरे प्रेम को
हो जाऊं धूल से फूल
अर्पण हो रहूँ चरणों में तेरे
तो मुक्ति पाऊँ होने से माया के
इस रूप से ...

शुक्रवार, 14 अगस्त 2009

कैसी है जिंदगी
इक अजूबा है
जब हम हार बैठते हैं
तो कोई कहीं से तिनका मात्र
आ बन जाता है जीवन का सहारा
हाँ नजर चाहिए
उस तिनके को
उस मोके तो प्र्ह्चान्ने के लिएय
ख्वाब सब पुरे होने लगते हैं
सब और हरियाली फेल जाती हेई
खुस्बूएं हर सु मनो बहार
जीवन में आ जाती है
जिंदगी नए सिरे इ जीने को मन होने लगता है
यह मन भी कितना बांवरा
होता है
जो कल थक अपना हो पल में पराया हो जाता है
लाख मानाने पर भी लौट कर नहीं आता
रहता है किसी से संग
साथ निभाता है
पर सिर्फ टीबी तक जब तक
मिलता रहता है
प्यार
जीवन टिका है प्यार की बुनियाद पर
जो जितनी नाजुक उतनी ही मजबूत भी होती है
जिसे दुनिया की कोई ताकत नहीं तोरे सकती और गर टूट जय तो तो कोई जोरे नहीं सकती
प्यार धेरून
पर्बतून समन्द्रून
आकाशून
धरती
सब नक्श्त्रून से भी बढ़ कर मले आप को
मेरी तरफ से
सिर्फ इक कविता के बदले

बेच दे मन

पसरे सुबह बन कर
चले हवा हो कर
बहे तो गंगा सागर हो कर

चमके तो चांदनी सा
फैले हर सू खुसबू सा

दुल्रारे गोदी सा भूम हो
भरे पेट बन्स्पत हो
आलिंगन में ले ले कुदरत हो

सर पर छत सा गगन वोह
रोशन हो धुप सा वोह

तो कहाँ

छिप छिपा सके है एह इंसान तू
उस की नजर की ज्योत है चारूं और

आ शरण पा आर्शीवाद
कर दे तेरे सरे गुनाह मुआफ
मिल के इक से इक हो रह

झुका दे सर बेच दे मन परभू के पास

बुधवार, 12 अगस्त 2009

मेरे मालिक

कची नींद में करवट बदलते ही
एहसास जग जाएं तो मालूम होता है
मेरे मालिक का हाथ है सर पर मेरे

आँख खोल देख पाती हूँ
गर झरोखून से उस पार
जहां रहता है मेरा प्रीतम प्यारा

समझ जाती हूँ
नहीं मेरे भीतर ही है
यहीं है मेरे आस पास

दिन भर की हर मुस्कान
है उसी का आशीर्वाद

झाँक झाँक मेरी आन्खून से
देखे सब संसार
फिर कहे हौले से मेरे कानो में
कर प्यार प्यार कर

हर सु मैं ही हूँ बिखरा हुआ
कण कण हूँ मैं ही बसा हुआ
मेरा ही रूप है तू भी

कर ले खुद से भी प्यार
बस प्यार ही प्यार
गली के कोने पर जहां छोर कर आई थी
आज भी वही देख पाती हूँ
आप की उदास आँखें रुकी हुई
आप मेरे मुड के देखने का इन्तजार करते रहे
पर नहीं जाना
की आज भी मेरे पीठ पर गहरे निशाँ हैं उन
गडी गडी नजरूं के
में मजबूर हूँ सामने देखने के लिएय
पर पीछे क्या है जानती हूँ खूब
उसी दुनिया किहूँ में आज भी
मुख सामने है पर दिल वही
सड़क के किनारे उसी मोड़ पर छोर आई थी
जाओ लाओ ना
दिल मेरा संभाल लो
मेरी खातिर

मंगलवार, 4 अगस्त 2009

कितनी अकेली बेचारी रात ..

सांझ होते ही
सूरज के ढलते ही
रात भागती फिरती है
गली गली
कूचा कूचा नापती
कभी इस और तो कभी उस चोर
नदी किनारे
सागर की लहरों के पीछे
कभी चढ़ जाती पहाड़ पर

कभी छिप जाती पैडों तले
भागती लुक छिप जाने कहाँ कहाँ
यहाँ वहां कहाँ कहाँ
इधर से उधर तक
तो कभी उधर से इधर तक
सर पटकती रोती बिलखती
ना कोई साथी
ना कोई सहारा
कोई ना कहे आना दोबारा
कितनी अकेली बेचारी रात ..


संग चले अंधियारा
कभी तारों से कहती

कभी चंदा से मिन्नतें करती
पर यूंही दौड्ती भागती सी रात ..


धीमे से खसकती जाती
आज की रात पलभर में
कल सुबह की बाहो में
यूं ही छिपती जाती
खिसकती खिसकती आज की रात ...


पल में होगी कल की सुबह
रात आज की रह जाओ मेरे पास
आज की रात मेरे हो जाओ...

रविवार, 2 अगस्त 2009

तुम कब आओगे

नयनों के दीपक जला,
कर पलकों की ओट
छुपाए पावन झकोरों से
प्रीत प्यार की ज्योत

ठहरी है धड़कन मन की
यही कहीं देहलीज़ पर
कब आओ गे प्रीतम प्यारे
तुम मन की देहलीज़ पर

बुझ ना जाए आस मेरी
यही है डर मुझको भारी
पलक झकोरे खोले बैठी
इंतज़ार में मैं बेचारी
सो ना जाए धड़कन मेरी
कब आओगे क्या है देरी

हवा में खोजूं महक तुम्हारी
फिजां में बसी हो सांस तुम्हारी
आस तुम्हारी साँसें मेरी
हर आहट पर आसें मेरी
हर साया, कि ज्यों तुम तुम आए
कब आओगे क्या है देरी
कब आओगे क्या है देरी