सोमवार, 6 जुलाई 2009

hi raam

घुप अँधेरा
काली स्याह रात अमावास की
चमकती बिजलियाँ
गरजते बादल
बड़ी भयानक रात है
यह जिंदगी

अद्भुत अनोखी
चाँद बादलों में मुँह छिपाए है डर से
तारे भी सब खो गए

घनघोर जंगल है सब ओर
वीराने सन्नाटे खामोशी है सब ओर
फिर भी
अकेले नहीं हैं हम
भीड़ हैं यहाँ
मेला लगा है
मजमें हैं सब और
कहीं नाग सरसराते हैं
तो कहीं उल्लू पुकार कर रहे
कभी सुनती हैं चमगादडों के फड फडाने
की आवाजें
कहीं कहीं से कोई पक्षी भी गलती से चहचहा उठते हैं
यूं तो जुगनू हैं कहीं कहीं
दिल बहलाने को
घबरा के हम एकेले से
ढूँढ़ते फिरते हैं कोई सहारा
पास है इक लाठी सुरक्षा के लिये
बस एक मात्र सहारा
उस का
यूं ही गुजरती रात सी इस जिंदगी में
जब कोई ठोकर लग जाए अचानक
मुख से निकले हे राम
तो इक बिजली सी कौंध जाए हर सू
गूँज जाए इक नाम
हे राम
भागे चले आयें सब चाँद तारे
बादल छत गे डर कर
नई उम्मीदों की किरने आ गिरी झोली में
इक ज्योति छू गई इन बंद आँखों के दीयों में
फैल गया परकाश हर सू
वोह गयी लाठी
खो गए अँधेरे जीवन के
जो थामा हाथ खुद
राम ने
मेरे और कर लिया इस भव सागर से पार
हे राम

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