सोमवार, 6 जुलाई 2009

intjaar

खामोशियाँ छाई रही यूंही बरसों
मदहोश से पड़े रहे जज़्बात मैखाने के किसी कोने में
ढूँढती रहीं मेरी चुप्पियाँ किसी को
दिल मेरा भटका गली गली
भीढ़ में हर चेहरा लगा तेरा ही चेहरा
आवारा सी हो घूमती रही सोच मेरी
मेले में मैं रही अकेली
एक उंगली जो थामी थी बचपन ने कभी
आज बूढी हुई उंगलियाँ
खोजती फिर रही हैं उन्ही स्पर्शों को
शून्य सा हो वक़्त भी चलता रहा थम थम कर
थम गई जिंदगी सदियों पहले से
भागते फिरे जुगनुओं की पीछे रात भर
आवारा ख़्वाबों को बाँध बाढ़ रखते रहे
जिंदगी टंगी रहगी रही दरख्तों पर कटी पतंग सी
आज भी है
इन्तजार इन बुझी बुझी आँखों में

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