सोमवार, 6 जुलाई 2009

soch

कुछ सोच में पड़ गए हैं ख्वाब मेरे
कैसे दे पाऊँगी साथ
कयूं कर चल पाएंगे उन राहों पर
की जज्बात तुम्हारे
ख्वाब भावनाएं सब के सब
हैं सागर से गहर गंभीर
जब से जज्बातों ने मेरी
थामी है उंगली तेरे गंभीर जहन की
कदम कदम चलने की कोशिश कर रहे हैं
गिरते पड़ते
लडखडाते नयी राहों पर
चल पड़े हैं खोजने माजिलें नई
गर बना रहे यूं ही साथ हमारा
थामे रहो तुम हाथ हमारा
तो शायद हो रहेगी सर मंजिलें अपनी
आज जो दिल की जमीन
नहीं पहचानती इन हलके ख्यालों के कदमो को
आज जो सुनाई नहीं देती आवाज इन खोखले ख़्वाबों की
कल जब यूंही साथ साथ चलते हो रहूँगी में तुमसी
ये ही पाँव भारी हो जाएं गे
अपने कुछ नक्श छोड़ जाएंगे
कल आने वाली पीढी फिर इन्ही नक्शे क़दमों पे चल
कर लेंगे मंजिलें सर
जो हम ने किये सफ़र तय
वोह मंजिलें हमारी औलादें पा जाएंगी
जो सफ़र रहगे हमारे अधूरे
वोह करेंगे हमारे बच्चे पूरे
तो शायद होंगे हमारे अधूरे ख्वाब पूरे

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